मैंने भारत के लगभग प्रत्येक कोनो की यात्रा की परन्तु वो क्या कारण थे कि मैं आज तक दक्षिण की यात्रा ना कर सका मुझे आज तक पता नहीं चला. पर दक्षिण यात्रा का सपना अंततः दिसंबर २००५ में पूरा हो गया. और अगर मैं उस बार भी नहीं जा पता तो शायद मेरा दुर्भाग्य ही होता. पर ऐसा हुआ नहीं.
इसको संयोग ही कहा जाये तो ठीक होगा की मेरी आज तक की लगभग सभी यात्रा के 2 ही कारण रहे हैं. परीक्षा या साक्षात्कार. और लगभग सम्पूर्ण भारत ऐसे ही घुमा हूँ!
इस बार हैदराबाद की यात्रा भी गज़ब ही है क्योंकि वहां पहली बार जा रहा हूँ!
मेरी यात्रा का पहला चरण वहां जाने वाली ट्रेन में आरक्षण से शुरू हुआ. परन्तु धन्य भारतीय रेलवे जिन्होने पूरे दिल्ली में आरक्षण केंद्र खोल रखे हैं. चूँकि नयी दिल्ली से सिर्फ एक ही ट्रेन दिल्ली जाती थी जिसका नाम नयी दिल्ली – हैदराबाद सुपरफास्ट हुआ करता था. अब क्या ये नहीं पता. उधर की ट्रेनों की खास बात हुआ करती की वो समय पर चलती थी. यूपी बिहार की तरह लेट लतीफ़ नहीं हुआ करती थी.
तो मैने दक्षिण एक्सप्रेस में टिकट कटवा लिया. टिकट वेटिंग की हुई.. पर विंडो वाले क्लर्क ने भरोसा दिया की कन्फर्म हो जाएगी.
जैसा उन्होने कहा वैसा ही हुआ और टिकट कन्फर्म हो गयी. ट्रेन बिलकुल सही समय पर थी. सीट भी पक्की हो गयी थी तो मुझे और भी ज्यादा अच्छा लगा. मेरी सबसे उपर की बर्थ थी. ट्रेन जब सही समय से रवाना हुई तो दिल बाग़ बाग़ हो गया. उपर वाली सीट का जो सबसे बड़ा फ़ायदा है वो की आप जितना मर्ज़ी सो जायें कोई कहता नहीं. और अगर कोई कहता भी है तो आप सुनते नहीं क्योंकि आप तो सोते रहते हैं! और उपर वाली सीट पर पढ़ने का एक अलग आनंद है. इताब में देखिये फिर पूरी ट्रेन का जायज़ा लीजिये फिर किताब में खो जाईये!
मेरे कोच में कुछ सेना के जवान भी थे जो जम्मू से हैदराबाद जा रहे थे. मेरे तजुर्बे के अनुसार ट्रेन में जितना भाई चारा होता है वो कहीं देखने को नहीं मिलता. और ट्रेन आपको मिनी भारत की पूरी झलक दिखाई देती है. मेरा मानना है की अगर किसी देश को समझाना है तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट से बेहतर कुछ नहीं है. यहाँ से आपको लगभग हर चीज़ दिख जाएगी.
भाषा के लिहाज़ से हम नार्थ इंडियन के लिए मलयालम, तमिल, तेलगू और कन्नड़ सब साउथ ही होता है. पर असली ये सारी भाषाएँ एक दुसरे से उतनी ही जुदा है जैसे पंजाबी और भोजपुरी. यही मेरे साथ भी हुआ. मेरे साथ कुछ हैदराबादी या कहूँ मलयाली, या कहूँ की तमिलियन वो क्या थे नहीं समझ पाया, जैसे लाख माथापच्ची करने के बाद उनकी भाषा. मुझे सिर्फ इंग्लिश के कुछ एक शब्द ही समझ में आये.
पर सुनने में बहुत अच्छा लग रहा था. ये वही वाली फीलिंग थी कि आप किसी संगीत पर नाच रहे रहे पर समझ कुछ नहीं आ रहा.
ये मेरी तब की पहली यात्रा थी जिसमे मैंने ट्रेन में नॉनवेज़ बिकते देखा. बिहार और यूपी मैं तब नॉनवेज़ ट्रेन में नहीं बिकता था. और यहाँ ट्रेन में चिकन राइस मिल रहा था. मुझे जैसा देश ऐसा भेष वैसा खाना याद आया. साथ ही याद आया हैदराबादी बिरयानी कितनी फैमस है.
गाड़ी की रफ़्तार से लगता था की उसको मेरे से ज्यादा जल्दी थी हैदराबाद पहुँचने की. वो शायद किसी सिग्नल को नहीं देख रही थी और अपनी पूरी रफ़्तार से चल रही थी. सब नॉनवेज़ खाने में लगे और मैं परम्परागत पूरी और आलू की सब्जी ठुसने में लगा हुआ था. और वहां हड्डियों तोड़ रहे थे और मैं आचार. चुपचाप खा कर सोने में जुट गया.
ट्रेन में ज्यादा सोने में एक समस्या है आपको अपने आप हिलने की आदत लग जाती है. स्लीपर में आपको एसी की तुलना में झटके भी ज्यादा लगते हैं. फिलहाल सुबह हो चुकी थी.. सीट के नीचे से चप्पल तलाशने में समय लग गया. पर नित्यकर्म निपटाने में समय नहीं लगा. ट्रेन में कुछ काम असंभव से लगते हैं ये उनमे से एक है. वाशरूम थे तो साफ़ पर.. ट्रेन की स्पीड जितनी तेज़ होती है उनके वाशरूम उतने ही ज्यादा हिलते हैं! इसका राज़ आज तक समझ में नहीं आया. खैर इतना सबकुछ करने में नागपुर आ चुका था.
मैं नीचे खिड़की से मनोरम नज़ारे में खोया हुआ था तभी मुझे कानों में ‘पोगा’ ‘पोगा’ सुना. पूछा क्या है भाई! तो बोला खरीदो. खुद जान जान जाओगे. आओ भैया. धत साला ई तो आलू का पकोड़ा है. मन में यही सवाल उठा. जो अच्छा लगा वो ‘पोंगा’ नाम था बस. इस पूरे सफ़र में जो भी हुआ वो सब अच्छा था फिर वो चाहे स्टेशनों पर बिकता स्वादिष्ट डोसा या बिरयानी, सभी कुछ अच्छा लग रहा था.
मुझे खाने के साथ लोगों का व्यवहार भी बहुत पसंद आया. ट्रेन रात के करीब 8 बजे सिकंदराबाद पहुंची. वहां पर लोकल ट्रेन को देख कर लगा वाह! क्या ट्रेन है. इतनी खुबसूरत वो भी लोकल ट्रेन. कभी हमारे यूपी, बिहार आईये ट्रेन की दुर्दशा दिखाई पड़ेगी. उस ट्रेन अगर कांच के शीशे लगा दो तो मेट्रो से कम न थी वो लोकल ट्रेन. मुझे उस लोकल ट्रेन में ना बैठ पाने का आज भी अफ़सोस है. मेरी यात्रा भी उस लोकल ट्रेन की तरह शानदार रही. इंटरव्यू तो सफल रहा था पर उस कंपनी को ज्वाइन न कर पाने का अफ़सोस है.
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मेरी हैदराबाद यात्रा
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- amey katkar
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Re: मेरी हैदराबाद यात्रा
You are writing this post, so vividly, from your memory of 13-14 years! Wow!
Did you strike any friendships? Conversations?
I didn't know you couldn't get non-veg in the trains in UP-Bihar. Do you get it now?
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I didn't know you couldn't get non-veg in the trains in UP-Bihar. Do you get it now?
no copy only inspiration..whatever